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रस (काव शास)
श्रव काव के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव के दशर्शन तथा श्रवण मे जो अलौकिकक आनन्द प्राप होता है, वही काव मे रस
कहलाता है। रस से िजस भाव की अनुभूतित होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार काव रचना के
आवश्यक अवयव होते हैं।
रस का अथर्श होता है िनचोड़। काव मे जो आनन्द आता है वह ही काव का रस है। काव मे आने वाला आनन्द अथार्शत् रस लौकिकक
न होकर अलौकिकक होता है। रस काव की आत्मा है। संस्कृत मे कहा गया है िक "रसात्मकम् वाक्यम् कावम्" अथार्शत् रसयुक
वाक्य ही काव है।
रस अन्त:करण की वह शिक है, िजसके कारण इन्द्रिन्द्रियाँ अपना कायर्श करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप की स्मृित रहती है। रस
आनंद रूप है और यही आनंद िवशाल का, िवराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवो का अितक्रमण भी है। आदमी
इन्द्रिन्द्रियो पर संयम करता है, तो िवषयो से अपने आप हट जाता है। परंतु उन िवषयो के प्रित लगाव नही छूतटता। रस का प्रयोग
सार तत्त्व के अथर्श मे चरक, सुश्रुत मे िमलता है। दूतसरे अथर्श मे, अवयव तत्त्व के रूप मे िमलता है। सब कुछ नष हो जाय, वथर्श हो
जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप मे बचा रहे, वही रस है। रस के रूप मे िजसकी िनष्पित होती है, वह भाव ही है। जब रस
बन जाता है, तो भाव नही रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूतवर्श की उत्पित है। नाट
की प्रस्तुित मे सब कुछ पहले से िदया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इन्द्रसके बावजूतद कुछ नया अनुभव
िमलता है। वह अनुभव दूतसरे अनुभवो को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक िशखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूतवर्श रूप अप्रमेय
और अिनवर्शचनीय है। [1]
अनुक्रम
1 िविभन सन्दभो मे रस का अथर्श
2 रस के प्रकार
3 पािरभािषक शब्दावली
3.1 स्थायी भाव
3.2 िवभाव
3.2.1 आलंबन िवभाव
3.2.1.1 िवषय
3.2.1.2 आश्रय
3.2.2 उद्दीपन िवभाव
3.2.2.1 आलंबन-गत (िवषयगत )
3.2.2.2 बाह (बिहगत)
3.3 अनुभाव
3.4 संचारी या विभचारी भाव
4 पिरचय
5 रस की उत्पित
6 रसो का परस्पर िवरोध
7 रस की आस्वादनीयता
8 रसो का राजा कौकन है?
9 शृंगार रस
10 हास्य रस
11 शान्त रस
12 रसो का अन्तभार्शव आिद
13 संदभर्श
14 इन्द्रन्हे भी देखे
िविभन सन्दभो मे रस का अथर्श
एक प्रिसद सूतक है- रसौक वै स:। अथार्शत् वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है। 'कुमारसम्भव' मे पानी, तरल और द्रिव के अथर्श मे रस
शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृित' मिदरा के िलए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूतंट के अथर्श मे रस शब्द प्रयुक
हुआ है। 'वैशेिषक दशर्शन' मे चौकबीस गुणो मे एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, ितक और
कषाय। स्वाद, रूिच और इन्द्रच्छा के अथर्श मे भी कािलदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रेम की अनुभूतित के िलए 'कुमारसम्भव' मे
रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'रघुवंश', आनन्द और प्रसनता के अथर्श मे रस शब्द काम मे लेता है। 'कावशास' मे िकसी किवता की
भावभूतिम को रस कहते हैं। रसपूतणर्श वाक्य को काव कहते हैं।
भतृर्शहिर सार, तत्व और सवोतम भाग के अथर्श मे रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुवेद' मे शरीर के संघटक तत्वो के िलए रस शब्द
प्रयुक हुआ है। सपधातुओ को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमिण को रसरत कहते हैं। मान्यता है
िक पारसमिण के स्पशर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उतररामचिरत' मे इन्द्रसके िलए रसज्ञ शब्द
प्रयुक हुआ है। भतृर्शहिर कावममर्शज्ञ को रसिसद कहते हैं। 'सािहत्यदपर्शण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण िववेचन के अथर्श मे रस परीक्षा
शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अथर्श मे रसप्रबन्ध शब्द प्रयुक हुआ है।
रस के प्रकार
रस 9 प्रकार के होते हैं -
क्रमांक रस का प्रकार स्थायी भाव
1. शृंगार रस रित
2. हास्य रस हास
3. करुण रस शोक
4. रौकद्रि रस क्रोध
5. वीर रस उत्साह
6. भयानक रस भय
7. वीभत्स रस घृणा, जुगुप्सा
8. अदभुत रस आश्चर्यर्श
9. शांत रस िनवेद
वात्सल्य रस को दसवाँ एवम् भिक को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। वत्सल तथा भिक इन्द्रनके स्थायी भाव हैं।
पािरभािषक शब्दावली
नाटशास मे भरत मुिन ने रस की वाख्या करते हुये कहा है -
िवभावानुभावविभचािरसंयोगाद्रिरस िनष्पित:
अथार्शत िवभाव, अनुभाव, विभचारी भाव के संयोग से रस की िनष्पित होती है। सुप्रिसद सािहत्य दपर्शण मे कहा गया है हृदय का
स्थायी भाव, जब िवभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग प्राप कर लेता है तो रस रूप मे िनष्पन हो जाता है।
रीितकाल के प्रमुख किव देव ने रस की पिरभाषा इन्द्रन शब्दो मे की है :
जो िवभाव अनुभाव अरू, िवभचािरणु किर होई। िथित की पूतरन वासना, सुकिव कहत रस होई॥
इस प्रकार रस के चार अंग है स्थायी भाव, िवभाव, अनुभाव और संचारी भाव।
स्थायी भाव
सहृदय के अंत:करण मे जो मनोिवकार वासना या संस्कार रूप मे सदा िवद्यमान रहते है तथा िजन्हे कोई भी िवरोधी या
अिवरोधी दबा नही सकता, उन्हे स्थायी भाव कहते है।
ये मानव मन मे बीज रूप मे, िचरकाल तक अचंचल होकर िनवास करते है। ये संस्कार या भावना के द्योतक है। ये सभी मनुष्यो मे
उसी प्रकार िछिपे रहते है जैसे िमट्टी मे गंध अिविच्छिन रूप मे समाई रहती है। ये इतने समथर होते है िक अन्य भावो को अपने मे
िवलीन कर लेते है।
इनकी संख्या 11 है - रित, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, िवस्मय, िनवेद, वात्सल्य और ईश्वर िवषयक प्रेम।
िवभाव
िवभाव का अथर है कारण। ये स्थायी भावो का िवभावन करते है, उन्हे आस्वाद योग्य बनाते है। ये रस की उत्पित मे आधारभूत
माने जाते है।
िवभाव के दो भेद है:
आलंबन िवभाव
भावो का उद्गम िजस मुख्य भाव या वस्तु के कारण हो वह काव का आलंबन कहा जाता है।
आलंबन के अंतगरत आते है िवषय और आश्रय ।
िवषय
िजस पात के प्रित िकसी पात के भाव जागृत होते है वह िवषय है। सािहत्य शास मे इस िवषय को आलंबन िवभाव अथवा
'आलंबन' कहते है।
आश्रय
िजस पात मे भाव जागृत होते है वह आश्रय कहलाता है।
उद्दीपन िवभाव
स्थायी भाव को जाग्रत रखने मे सहायक कारण उद्दीपन िवभाव कहलाते है।
उदाहरण स्वरूप (१) वीर रस के स्थायी भाव उत्साह के िलए सामने खड़ा हुआ शतु आलंबन िवभाव है। शतु के साथ सेना, युद के
बाजे और शतु की दपोक्तिक्तियां, गजरना-तजरना, शस संचालन आिद उद्दीपन िवभाव है।
उद्दीपन िवभाव के दो प्रकार माने गये है:
आलंबन-गत (िवषयगत )
अथारत् आलंबन की उिक्तियां और चेष्ठाएं
बाह (बिहगत)
अथारत् वातावरण से संबंिधत वस्तुएं। प्राकृितक दृश्यो की गणना भी इन्ही के अंतरगत होती है।
अनुभाव
रित, हास, शोक आिद स्थायी भावो को प्रकािशत या वक्ति करने वाली आश्रय की चेष्टाएं अनुभाव कहलाती है।
ये चेष्टाएं भाव-जागृित के उपरांत आश्रय मे उत्पन होती है इसिलए इन्हे अनुभाव कहते है, अथारत जो भावो का अनुगमन करे वह
अनुभाव कहलाता है।
अनुभाव के दो भेद है - इिच्छित और अिनिच्छित।
आलंबन एवं उद्दीपन के माध्यम से अपने-अपने कारणो द्वारा उत्पन, भावो को बाहर प्रकािशत करने वाली सामान्य लोक मे जो
कायर चेष्टाएं होती है, वे ही काव नाटक आिद मे िनबद अनुभाव कहलाती है। उदाहरण स्वरूप िवरह-वाकुल नायक द्वारा
िससिकयां भरना, िमलन के भावो मे अश्रु, स्वेद, रोमांच, अनुराग सिहत देखना, क्रोध जागृत होने पर शस संचालन, कठोर वाणी,
आंखो का लाल हो जाना आिद अनुभाव कहे जाएंगे।
साधारण अनुभाव : अथारत(इिच्छित अिभनय)के चार भेद है। 1.आंिगक 2.वािचक 3. आहायर 4. साित्वक। आश्रय की शरीर संबंधी
चेष्टाएं आंिगक या काियक अनुभाव है। रित भाव के जाग्रत होने पर भू-िवक्षेप, कटाक्ष आिद प्रयत पूवरक िकये गये वाग्वापार
वािचक अनुभाव है। आरोिपत या कृितम वेष-रचना आहायर अनुभाव है। परंतु, स्थायी भाव के जाग्रत होने पर स्वाभािवक,
अकृितम, अयतज, अंगिवकार को साित्वक अनुभाव कहते है। इसके िलए आश्रय को कोई बाह चेष्टा नही करनी पड़ती। इसिलए ये
अयतज कहे जाते है। ये स्वत: प्रादुभूरत होते है और इन्हे रोका नही जा सकता।
साित्वक अनुभाव : अथारत (अिनिच्छित)आठ भेद है - स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु (कम्प), वैवण्यर, अश्रु और प्रलय।
संचारी या विभचारी भाव
जो भाव केवल थोड़ी देर के िलए स्थायी भाव को पुष्ट करने के िनिमत सहायक रूप मे आते है और तुरंत लुप हो जाते है, वे
संचारी भाव है।
संचारी शब्द का अथर है, साथ-साथ चलना अथारत संचरणशील होना, संचारी भाव स्थायी भाव के साथ संचिरत होते है, इनमे
इतना सामरथ्य होता है िक ये प्रत्येक स्थायी भाव के साथ उसके अनुकूल बनकर चल सकते है। इसिलए इन्हे विभचारी भाव भी
कहा जाता है।
संचारी या विभचारी भावो की संख्या ३३ मानी गयी है - िनवेद, ग्लािन, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, िचता, मोह,
स्मृित, धृित, व्रीड़ा, चापल्य, हषर, आवेग, जड़ता, गवर, िवषाद, औत्सुक्य, िनद्रा, अपस्मार (िमगी), स्वप, प्रबोध, अमषर
(असहनशीलता), अविहत्था (भाव का िछिपाना), उग्रता, मित, वािध, उन्माद, मरण, तास और िवतकर।
पिरचय
भरतमुिन (2-3 शती ई.) ने काव के आवश्यक तत्व के रूप मे रस की प्रितष्ठा करते हुए शृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीर, अदभुत,
बीभत्स तथा भयानक नाम से उसके आठ भेदो का स्पष्ट उल्लेख िकया है तथा कितपय पंिक्तियो के आधार पर िवद्वानो की कल्पना
है िक उन्होने शांत नामक नवे रस को भी स्वीकृित दी है। इन्ही नौ रसो की संज्ञा है नवरस। िवभावानुभाव-संचारीभाव के संयोग
से इन रसो की िनष्पित होती है। प्रत्येक रस का स्थायीभाव अलग-अलग िनिश्चित है। उसी की िवभावािद संयोग से पिरपूणर
होनेवाली िनिवघ-प्रतीित-ग्राह अवस्था रस कहलाती है। शृंगार का स्थायी रित, हास्य का हास, रौद्र का क्रोध, करुण का शोक,
वीर का उत्साह, अदभुत का िवस्मय, बीभत्स का जुगुप्सा, भयानक का भय तथा शांत का स्थायी शम या िनवेद कहलाता है। भरत
ने आठ रसो के देवता क्रमश: िवष्णु, प्रमथ, रुद्र, यमराज, इंद्र, ब्रह्मा, महाकाल तथा कालदेव को माना है। शांत रस के देवता
नारायण, और उसका वणर कुंदेटु बताया जाता है। प्रथम आठ रसो के क्रमश: श्याम, िसत, रक्ति, कपोत, गौर, पीत, नील तथा कृष्ण
वणर माने गए है।
रस की उत्पित
भरत ने प्रथम आठ रसो मे शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स को प्रधान मानकर क्रमश: हास्य, करुण, अदभुत तथा भयानक रस की
उत्पित मानी है। शृंगार की अनुकृित से हास्य, रौद्र तथा वीर कमर के पिरणामस्वरूप करुण तथा अदभुत एवं वीभत्स दशरन से
भयानक उत्पन होता है। अनुकृतित का अथ,र, अिभनवगुप (11 वी शती) के शब्दो मे आभास है, अत: िकसी भी रस का आभास हास्य
का उत्पादक हो सकता है। िवकृतत वेशालंकारािद भी हास्योत्पादक होते हैं। रौद का कायर िवनाश होता है, अत: उससे करुण की
तथ,ा वीरकमर का कतार प्राय: अशक्य कायो को भी करते देखा जाता है, अत: उससे अदभुत की उत्पित स्वाभािवक लगती है। इसी
प्रकार बीभत्सदशरन से भयानक की उत्पित भी संभव है। अकेले स्मशानािद का दशरन भयोत्पादक होता है। तथ,ािप यह उत्पित
िसद्धांत आत्यंितक नही कहा जा सकता, क्योिक परपक का रौद या वीर रस स्वपक के िलए भयानक की सृतिष भी कर सकता है
और बीभत्सदशरन से शांत की उत्पित भी संभव है। रौद से भयानक, शृतंगार से अदभुत और वीर तथ,ा भयानक से करुण की उत्पित
भी संभव है। वस्तुत: भरत का अिभमत स्पष नही है। उनके पश्चात् धनंजय (10 वी शती) ने िचित की िवकास, िवस्तार, िवकोभ
तथ,ा िवकेप नामक चिार अवस्थ,ाएँ मानकर शृतंगार तथ,ा हास्य को िवकास, वीर तथ,ा अदभुत को िवस्तार, बीभत्स तथ,ा भयानक को
िवकोभ और रौद तथ,ा करुण को िवकेपावस्थ,ा से संबंिधत माना है। िकतु जो िवद्वान् केवल दुित, िवस्तार तथ,ा िवकास नामक तीन
ही अवस्थ,ाएँ मानते हैं उनका इस वगीकरण से समाधान न होगा। इसी प्रकार यिद शृतंगार मे िचित की दिवत िस्थ,ित, हास्य तथ,ा
अदभुत मे उसका िवस्तार, वीर तथ,ा रौद मे उसकी दीिप तथ,ा बीभत्स और भयानक मे उसका संकोचि मान ले तो भी भरत का क्रम
ठीक नही बैठता। एक िस्थ,ित के साथ, दूसरी िस्थ,ित की उपिस्थ,ित भी असंभव नही है। अदभुत और वीर मे िवस्तार के साथ, दीिप
तथ,ा करुण मे दुित और संकोचि दोनो हैं। िफिर भी भरतकृतत संबंध स्थ,ापन से इतना संकेत अवश्य िमलता है िक किथ,त रसो मे
परस्पर उपकारकतार िवद्यमान है और वे एक दूसरे के िमत तथ,ा सहचिारी हैं।
रसो का परस्पर िवरोध
िमतता के समान ही इन रसो की प्रयोगिस्थ,ित के अनुसार इनके िवरोध की कल्पना भी की गई है। िकस रसिवशेष के साथ, िकन
अन्य रसो का तुरंत वणरन आस्वाद मे बाधक होगा, यह िवरोधभावना इसी िवचिार पर आधािरत है। करुण, बीभत्स, रौद, वीर और
भयानक से शृतंगार का; भयानक और करुण से हास्य का; हास्य और शृतंगार से करुण का; हास्य, शृतंगार और भयानक से रौद का;
शृतंगार, वीर, रौद, हास्य और शात से भयानक का; भयानक और शांत से वीर का; वीर, शृतंगार, रौद, हास्य और भयानक से शांत का
िवरोध माना जाता है। यह िवरोध आश्रय ऐक्य, आलंबन ऐक्य अथ,वा नैरंतयर के कारण उपिस्थ,त होता है। प्रबंध काव मे ही इस
िवरोध की संभावना रहती है। मुक्तक मे प्रसंग की छंद के साथ, ही समािप हो जाने से इसका भय नही रहता है। लेखक को िवरोधी
रसो का आश्रय तथ,ा आलंबनो को पृतथ,क-पृतथ,क रखकर अथ,वा दो िवरोधी रसो के बीचि दोनो के िमत रस को उपिस्थ,त करके या
प्रधान रस की अपेका अंगरस का संचिारीवत् उपिस्थ,त करके इस िवरोध से उत्पन आस्वाद-वाघात को उपिस्थ,त होने से बचिा लेना
चिािहए।
रस की आस्वादनीयता
रस की आस्वादनीयता का िवचिार करते हुए उसे ब्रह्मानंद सहोदर, स्वप्रकाशानंद, िवलकण आिद बताया जाता है और इस आधार
पर सभी रसो को आनंदात्मक माना गया है। भट्टनायक (10 वी शती ई.) ने सत्वोदैक के कारण ममत्व-परत्व-हीन दशा, अिभनवगुप
(11 वी शती ई.) ने िनिवघ प्रतीित तथ,ा आनंदवधरन (9 श. उतर) ने करुण मे माधुयर तथ,ा आदरता की अविस्थ,त बताते हुए शृतंगार,
िवप्रलंभ तथ,ा करुण को उतरोतर प्रकषरमय बताकर सभी रसो की आनंदस्वरूपता की ओर ही संकेत िकया है। िकतु
अनुकूलवेदनीयता तथ,ा प्रितकूलवेदनीयता के आधार पर भावो का िववेचिन करके रुदभट्ट (9 से 11 वी शती ई. बीचि) रामचिंद
गुणचिंद (12 वी श.ई.), हिरपाल, तथ,ा धनंजय ने और िहदी मे आचिायर रामचिंद शुक्ल ने रसो का सुखात्मक तथ,ा दु:खात्मक
अनुभूितवाला माना है। अिभनवगुप ने इन सबसे पहले ही "अिभनवभारती" मे "सुखदु:खस्वभावो रस:" िसद्धात को प्रस्तुत कर
िदया थ,ा। सुखात्मक रसो मे शृतंगार, वीर, हास्य, अदभुत तथ,ा शांत की और दु:खात्मक मे करुण, रौद, बीभत्स तथ,ा भयानक की
गणना की गई। "पानकरस" का उदाहरण देकर जैसे यह िसद्ध िकया गया िक गुड िमिरचि आिद को िमिश्रत करके बनाए जानेवाले
पानक रस मे अलग-अलग वस्तुओ का खट्टा मीठापन न मालूम होकर एक िविचित प्रकार का आस्वाद िमलता है, उसी प्रकार यह
भी कहा गया िक उस वैिचित्र्य मे भी आनुपाितक ढंग से कभी खट्टा, कभी ितक्त और इसी प्रकार अन्य प्रकार का स्वाद आ ही जाता
है। मधुसूदन सरस्वती का कथ,न है िक रज अथ,वा तम की अपेका सत्व को प्रधान मान लेने पर भी यह तो मानना ही चिािहए िक
अंशत: उनका भी आस्वाद बना रहता है। आचिायर शुक्ल का मत है िक हमे अनुभूित तो विणत भाव की ही होती है और भाव
सुखात्मक दु:खात्मक आिद प्रकार के हैं, अतएव रस भी दोनो प्रकार का होगा। दूसरी ओर रसो को आनंदात्मक मानने के पकपाती
सहृदयो को ही इसका प्रमण मानते हैं और तकर का सहारा लेते हैं िक दु:खदायी वस्तु भी यिद अपनी िप्रय है तो सुखदायी ही
प्रतीत होती है। जैसे, रितकेिल के समय स्त्री का नखकतािद से यो तो शरीर पीडा ही अनुभव होती है, िकतु उस समय वह उसे सुख
ही मानती है। भोज (11 वी शती ई.) तथ,ा िवश्वनाथ, (14 वी शती ई.) की इस धारणा के अितिरक्त स्वयं मधुसूदन सरस्वती रसो
को लौिकक भावो की अनुभूित से िभन और िवलकण मानकर इनकी आनंदात्मकता का समथ,रन करते है और अिभनवगुप
वीतिवघप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष करते हैं िक उसी भाव का अनुभव भी यिद िबना िवचििलत हुए और िकसी बाहरी
अथ,वा अंतरोदभूत अंतराय के िबना िकया जाता है तो वह सह होने के कारण आनंदात्मक ही कहलाता है। यिद दु:खात्मक ही
माने तो िफिर शृतंगार के िवप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही माने तो िफिर शृतंगार के िवप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही क्यो न माना
जाए? इस प्रकार के अनेक तकर देकर रसो की आनंदरूपता िसद्ध की जाती है। अंग्रेजी मे ट्रैजेडी से िमलनेवाले आनंद का भी अनेक
प्रकार से समाधान िकया गया है और मराठी लेखको ने भी रसो की आनंदरूपता के संबंध मे पयारप िभन धारणाएँ प्रस्तुत की हैं।
रसो का राजा कौन है?
प्राय: रसो के िविभन नामो की औपािधक या औपचिािरक सता मानकर पारमािथ,क रूप मे रस को एक ही मानने की धारणा
प्रचििलत रही है। भारत ने "न िह रसादृतते किश्चदप्यथ,र : प्रवतरत" पंिक्त मे "रस" शब्द का एक वचिन मे प्रयोग िकया है और
अिभनवगुप ने उपिरिलिखत धारणा वक्त की है। भोज ने शृतंगार को ही एकमात रस मानकर उसकी सवरथ,ैव िभन वाख्या की है,
िवश्वनाथ, की अनुसार नारायण पंिडत चिमत्कारकारी अदभुत को ही एकमात रस मानते हैं, क्योिक चिमत्कार ही रसरूप होता है।
भवभूित (8 वी शती ई.) ने करुण को ही एकमात रस मानकर उसी से सबकी उत्पित बताई है और भरत के "स्वं स्वं
िनिमतमासाद्य शांताद्भाव: प्रवतरते, पुनिनिमतापाये चि शांत एवोपलीयते" - (नाट्यशास्त्र 6/108) वक्तव के आधार पर शांत को ही
एकमात रस माना जा सकता है। इसी प्रकार उत्साह तथ,ा िवस्मय की सवररससंचिारी िस्थ,ित के आधार पर उन्हे भी अन्य सब रसो
के मूल मे माना जा सकता है। रस आस्वाद और आनंद के रूप मे एक अखंड अनुभूित मात हैं, यह एक पक है और एक ही रस से
अन्य रसो का उद्भव हुआ है यह दूसरा पक है।
रसाप्राधान्य के िवचिार मे रसराजता की समस्या उत्पन की है। भरत समस्त शुिचि, उज्वल, मेध्य और दलनीय को शृतंगार मानते हैं,
"अिग्निपुराण" (11 वी शती) शृतंगार को ही एकमात रस बताकर अन्य सबको उसी के भेद मानता है, भोज शृतंगार को ही मूल और
एकमात रस मानते हैं, परंतु उपलब्ध िलिखत प्रमाण के आधार पर "रसराज" शब्द का प्रयोग "उज्ज्वलनीलमिण" मे भिक्तरस के
िलए ही िदखाई देता है। िहदी मे केशवदास (16 वी शती ई.) शृतंगार को रसनायक और देव किव (18 वी शती ई.) सब रसो का
मूल मानते हैं। "रसराज" संज्ञा का शृतंगार के िलए प्रयोग मितराम (18 वी शती ई.) द्वारा ही िकया गया िमलता है। दूसरी ओर
बनारसीदास (17 वी शती ई.) "समयसार" नाटक मे "नवमो सांत रसिन को नायक" की घोषणा करते हैं। रसराजता की स्वीकृतित
वापकता, उत्कट आस्वाद्यता, अन्य रसो को अंतभूरत करने की कमता सभी संचिािरयो तथ,ा साित्वको को अंत:सात् करने की शिक्त
सवरप्रािणसुलभत्व तथ,ा शीघ्रग्राहता आिद पर िनभरर है। ये सभी बाते िजतनी अिधक और प्रबल शृतंगार मे पाई जाती हैं, उतनी अन्य
रसो मे नही। अत: रसराज वही कहलाता है।
शृतंगार रस
िवचिारको ने रौद तथ,ा करुण को छोडकर शेष रसो का भी वणरन िकया है। इनमे सबसे िवस्तृतत वणरन शृतंगार का ही ठहरता है।
शृतंगार मुख्यत: संयोग तथ,ा िवप्रलंभ या िवयोग के नाम से दो भागो मे िवभािजत िकया जाता है, िकतु धनंजय आिद कुछ िवद्वान्
िवप्रलंभ के पूवारनुराग भेद को संयोग-िवप्रलंभ-िवरिहत पूवारवस्थ,ा मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथ,ा शेष िवप्रयोग तथ,ा संभोग
नाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अनेक पिरिस्थ,ितयो के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल आश्रय भेद से
नायकारब्ध, नाियकारब्ध अथ,वा उभयारब्ध, प्रकाशन के िवचिार से प्रच्छन तथ,ा प्रकाश या स्पष और गुप तथ,ा प्रकाशनप्रकार के
िवचिार से संिकप, संकीणर, संपनतर तथ,ा समृतिद्धमान नामक भेद िकए जाते हैं तथ,ा िवप्रलंभ के पूवारनुराग या अिभलाषहेतुक, मान
या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, िवरह तथ,ा करुण िप्रलंभ नामक भेद िकए गए हैं। "कावप्रकाश" का िवरहहेतुक नया है और शापहेतुक भेद
प्रवास के ही अंतगरत गृतहीत हो सकता है, "सािहत्यदपरण" मे करुण िवप्रलंभ की कल्पना की गई है। पूवारनुराग कारण की दृतिष से
गुणश्रवण, प्रत्यकदशरन, िचितदशरन, स्वप तथ,ा इंदजाल-दशरन-जन्य एवं राग िस्थ,रता और चिमक के आधार पर नीली, कुसुंभ तथ,ा
मंिजष्ठा नामक भेदो मे बाँटा जाता है। "अलंकारकौस्तुभ" मे शीघ्र नष होनेवाले तथ,ा शोिभत न होनेवाले राग को "हािरद" नाम से
चिौथ,ा बताया है, िजसे उनका टीकाकार "श्यामाराग" भी कहता है। पूवारनुराग का दश कामदशाएँ - अिभलाष, िचिता, अनुस्मृतित,
गुणकीतरन, उद्वेग, िवलाप, वािध, जडता तथ,ा मरण (या अप्रदश्र्य होने के कारण उसके स्थ,ान पर मूच्र्छा) - मानी गई हैं, िजनके
स्थ,ान पर कही अपने तथ,ा कही दूसरे के मत के रूप मे िवष्णुधमोतरपुराण, दशरूपक की अवलोक टीका, सािहत्यदपरण, प्रतापरुदीय
तथ,ा सरस्वतीकंठाभरण तथ,ा कावदपरण मे िकिचित् पिरवतरन के साथ, चिकुप्रीित, मन:संग, स्मरण, िनदाभंग, तनुता, वावृतित,
लज्जानाश, उन्माद, मूच्र्छा तथ,ा मरण का उल्लेख िकया गया है। शारदातनय (13 वी शती) ने इच्छा तथ,ा उत्कंठा को जोडकर तथ,ा
िवद्यानाथ, (14 वी शती पूवारधर) ने स्मरण के स्थ,ान पर संकल्प लाकर और प्रलाप तथ,ा संज्वर को बढ़ाकर इनकी संख्या 12 मानी
है। यह युिक्तयुक्त नही है और इनका अंतभारव हो सकता है। मान-िवप्रलंभ प्रणय तथ,ा ईष्र्या के िवचिार से दो प्रकार का तथ,ा मान
की िस्थ,रता तथ,ा अपराध की गंभीरता के िवचिार से लघु, मध्यम तथ,ा गुरु नाम से तीन प्रकार का, प्रवासिवप्रलंभ कायरज, शापज,
सँभ्रमज नाम से तीन प्रकार का और कायरज के यस्यत्प्रवास या भिवष्यत् गच्छत्प्रवास या वतरमान तथ,ा गतप्रवास या भिवष्यत्
गच्छत्प्रवास या वतरमान तथ,ा गतप्रवास या भूतप्रवास, शापज के तादूप्य तथ,ा वैरूप्य, तथ,ा संभ्रमज के उत्पात, वात, िदव, मानुष
तथ,ा परचिक्रािद भेद के कारण कई प्रकार का होता है। िवरह गुरुजनािद की समीपता के कारण पास रहकर भी नाियका तथ,ा
नायक के संयोग के होने का तथ,ा करुण िवप्रलंभ मृतत्यु के अनंतर भी पुनजीवन द्वारा िमलन की आशा बनी रहनेवाले िवयोग को
कहते हैं। शृतंगार रस के अंतगरत नाियकालंकार, ऋतु तथ,ा प्रकृतित का भी वणरन िकया जाता है। एक उदाहरण है-
राम को रूप िनहारित जानकी कंगन के नग की परछाही ।
याते सबे सुख भूिल गइ कर तेिक रही पल तारित नाही ।।
हास्य रस
हास्यरस के िवभावभेद से आत्मस्थ, तथ,ा परस्थ, एवं हास्य के िवकासिवचिार से िस्मत, हिसत, िवहिसत, उपहिसत, अपहिसत तथ,ा
अतितिहसिसिति भेद करके उनके भी उत्तम, मध्यम तिथा अतधम प्रकृतिति भेद सिे तिीन भेद करतिे हुए उनके अतंतिगतर्गति पूर्वोक क्रमश: दो-दो भेदो
को रखा गतया हसै। िहसदी मे केशवदासि तिथा एकाध अतन्य लेखक ने केवल मंदहसासि, कलहसासि, अतितिहसासि तिथा पिरहसासि नामक चार हसी
भेद िकए हसैं। अतंग्रेजी के आधार पर हसास्य के अतन्य अतनेक नाम भी प्रचिलति हसो गतए हसैं। वीर रसि के केवल युद्धवीर, धमर्गवीर, दयावीर
तिथा दानवीर भेद स्वीकार िकए जातिे हसैं। उत्सिाहस को आधार मानकर पंिडितिराज (17 वी शतिी मध्य) आिद ने अतन्य अतनेक भेद भी
िकए हसैं। अतदभुति रसि के भरति िदव तिथा आनंदज और वैष्णव आचायर्ग दृतष, श्रुति, सिंकीर्तितिति तिथा अतनुिमति नामक भेद करतिे हसैं। बीभत्सि
भरति तिथा धनंजय के अतनुसिार शुद्ध, क्षोभन तिथा उद्वेगती नाम सिे तिीन प्रकार का हसोतिा हसै और भयानक कारणभेद सिे वाजजन्य या
भ्रमजिनति, अतपराधजन्य या काल्पिनक तिथा िवत्रािसितिक या वास्तििवक नाम सिे तिीन प्रकार का और स्विनष परिनष भेद सिे दो
प्रकार का माना जातिा हसै। शांति का कोई भेद नहसी हसै। केवल रुद्रभट ने अतवश्य वैराग्य, दोषनिनग्रहस, सिंतिोषन तिथा तित्वसिाक्षात्कार नाम
सिे इसिके चार भेद िदए हसैं जो सिाधन मात्र के नाम हसै और इनकीर्त सिंख्या बढ़ाई भी जा सिकतिी हसै।
शान्ति रसि
शांति रसि का उल्लेख यहसाँ कुछ दृतिषयो सिे और आवश्यक हसै। इसिके स्थायीभाव के सिंबंध मे ऐकमत्य नहसी हसै। कोई शम को और कोई
िनवेद को स्थायी मानतिा हसै। रुद्रट (9 ई.) ने "सिम्यक् ज्ञान" को, आनंदवधर्गन ने "तिृतष्णाक्षयसिुख" को, तिथा अतन्यो ने
"सिवर्गिचत्तवृतित्तप्रशम", िनिवशेषनिचत्तवृतित्त, "घृतिति" या "उत्सिाहस" को स्थायीभाव माना। अतिभनवगतुप ने "तित्वज्ञान" को स्थायी माना
हसै। शांति रसि का नाट मे प्रयोगत करने के सिंबंध मे भी वैमत्य हसै। िवरोधी पक्ष इसिे िविक्रयाहसीन तिथा प्रदशर्गन मे किठिन मानकर
िवरोध करतिा हसै तिो सिमथर्गक दल का कथन हसै िक चेषाओ का उपराम प्रदिशति करना शांति रसि का उद्देश्य नहसी हसै, वहस तिो पयर्यंतिभूर्िम
हसै। अततिएव पात्र कीर्त स्वभावगतति शांिति एवं लौकिकक दु:ख सिुख के प्रिति िवरागत के प्रदशर्गन सिे हसी काम चल सिकतिा हसै। नट भी इन बातिो
को और इनकीर्त प्रािप के िलए िकए गतए प्रयत्नो को िदखा सिकतिा हसै और इसि दशा मे सिंचािरयो के ग्रहसण करने मे भी बाधा नहसी
हसोगती। सिवेंद्रिद्रय उपराम न हसोने पर सिंचारी आिद हसो हसी सिकतिे हसैं। इसिी प्रकार यिद शांति शम अतवस्थावाला हसै तिो रौकद्र, भयानक तिथा
वीभत्सि आिद कुछ रसि भी ऐसिे हसैं िजनके स्थायीभाव प्रबुद्ध अतवस्था मे प्रबलतिा िदखाकर शीघ हसी शांति हसोने लगततिे हसैं। अततिएव जैसिे
उनका प्रदशर्गन प्रभावपूर्णर्ग रूप मे िकया जातिा हसै, वैसिे हसी इसिका भी हसो सिकतिा हसै। जैसिे मरण जैसिी दशाओ का प्रदशर्गन अतन्य स्थानो
पर िनिषनद्ध हसै वैसिे हसी उपराम कीर्त पराकाषा के प्रदशर्गन सिे यहसाँ भी बचा जा सिकतिा हसै।
रसिो का अतन्तिभार्गव आिद
स्थायीभावो के िकसिी िवशेषन लक्षण अतथवा रसिो के िकसिी भाव कीर्त सिमानतिा के आधार पर प्राय: रसिो का एक दूर्सिरे मे अतंतिभार्गव
करने, िकसिी स्थायीभाव का ितिरस्कार करके नवीन स्थायी मानने कीर्त प्रवृतित्त भी यदा-कदा िदखाई पड़ी हसै। यथा, शांति रसि और
दयावीर तिथा वीभत्सि मे सिे दयावीर का शांति मे अतंतिभार्गव तिथा बीभत्सि स्थायी जुगतुप्सिा को शांति का स्थायी माना गतया हसै।
"नागतानंद" नाटक को कोई शांति का और कोई दयावीर रसि का नाटक मानतिा हसै। िकतिु यिद शांति के तित्वज्ञानमूर्लक िवराम और
दयावीर के करुणाजिनति उत्सिाहस पर ध्यान िदया जाए तिो दोनो मे िभन्नतिा िदखाई देगती। इसिी प्रकार जुगतुप्सिा मे जो िवकषनर्गण हसै वहस
शांति मे नहसी रहसतिा। शांति रागत-द्वेषन दोनो सिे परे सिमावस्था और तित्वज्ञानसिंिमिलति रसि हसै िजसिमे जुगतुप्सिा सिंचारी मात्र बन सिकतिी
हसै। ठिीक ऐसिे जैसिे करुण मे भी सिहसानुभूर्िति का सिंचार रहसतिा हसै और दयावीर मे भी, िकतिु करुण मे शोक कीर्त िस्थिति हसै और दयावीर
मे सिहसानुभूर्ितिप्रेिरति आत्मशिकसिंभूर्ति आनंदरूप उत्सिाहस कीर्त। अतथवा, जैसिे रौकद्र और युद्धवीर दोनो का आलंबन शत्रु हसै, अतति: दोनो मे
क्रोध कीर्त मात्रा रहसतिी हसै, परंतिु रौकद्र मे रहसनेवाली प्रमोदप्रितिकूर्ल तिीक्ष्णतिा और अतिववेक और युद्धवीर मे उत्सिहस कीर्त उत्फु ल्लतिा और
िववेक रहसतिा हसै। क्रोध मे शत्रुिवनाश मे प्रितिशोध कीर्त भावना रहसतिी हसै और वीर मे धैयर्ग और उदारतिा। अततिएव इनका परस्पर
अतंतिभार्गव सिंभव नहसी। इसिी प्रकार "अतंमषनर्ग" को वीर का स्थायी मानना भी उिचति नहसी, क्योिक अतमषनर्ग िनदा, अतपमान या आक्षेपािद के
कारण िचत्त के अतिभिनवेश या स्वािभमानावबोध के रूप मे प्रकट हसोतिा हसै, िकतिु वीररसि के दयावीर, दानवीर, तिथा धमर्गवीर नामक
भेदो मे इसि प्रकार कीर्त भावना नहसी रहसतिी।

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रस (काव्य शास्त्र)

  • 1. रस (काव शास) श्रव काव के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव के दशर्शन तथा श्रवण मे जो अलौकिकक आनन्द प्राप होता है, वही काव मे रस कहलाता है। रस से िजस भाव की अनुभूतित होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस, छंद और अलंकार काव रचना के आवश्यक अवयव होते हैं। रस का अथर्श होता है िनचोड़। काव मे जो आनन्द आता है वह ही काव का रस है। काव मे आने वाला आनन्द अथार्शत् रस लौकिकक न होकर अलौकिकक होता है। रस काव की आत्मा है। संस्कृत मे कहा गया है िक "रसात्मकम् वाक्यम् कावम्" अथार्शत् रसयुक वाक्य ही काव है। रस अन्त:करण की वह शिक है, िजसके कारण इन्द्रिन्द्रियाँ अपना कायर्श करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप की स्मृित रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद िवशाल का, िवराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवो का अितक्रमण भी है। आदमी इन्द्रिन्द्रियो पर संयम करता है, तो िवषयो से अपने आप हट जाता है। परंतु उन िवषयो के प्रित लगाव नही छूतटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अथर्श मे चरक, सुश्रुत मे िमलता है। दूतसरे अथर्श मे, अवयव तत्त्व के रूप मे िमलता है। सब कुछ नष हो जाय, वथर्श हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप मे बचा रहे, वही रस है। रस के रूप मे िजसकी िनष्पित होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नही रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूतवर्श की उत्पित है। नाट की प्रस्तुित मे सब कुछ पहले से िदया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इन्द्रसके बावजूतद कुछ नया अनुभव िमलता है। वह अनुभव दूतसरे अनुभवो को पीछे छोड़ देता है। अकेले एक िशखर पर पहुँचा देता है। रस का यह अपूतवर्श रूप अप्रमेय और अिनवर्शचनीय है। [1] अनुक्रम 1 िविभन सन्दभो मे रस का अथर्श 2 रस के प्रकार
  • 2. 3 पािरभािषक शब्दावली 3.1 स्थायी भाव 3.2 िवभाव 3.2.1 आलंबन िवभाव 3.2.1.1 िवषय 3.2.1.2 आश्रय 3.2.2 उद्दीपन िवभाव 3.2.2.1 आलंबन-गत (िवषयगत ) 3.2.2.2 बाह (बिहगत) 3.3 अनुभाव 3.4 संचारी या विभचारी भाव 4 पिरचय 5 रस की उत्पित 6 रसो का परस्पर िवरोध 7 रस की आस्वादनीयता 8 रसो का राजा कौकन है? 9 शृंगार रस 10 हास्य रस 11 शान्त रस 12 रसो का अन्तभार्शव आिद
  • 3. 13 संदभर्श 14 इन्द्रन्हे भी देखे िविभन सन्दभो मे रस का अथर्श एक प्रिसद सूतक है- रसौक वै स:। अथार्शत् वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है। 'कुमारसम्भव' मे पानी, तरल और द्रिव के अथर्श मे रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृित' मिदरा के िलए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूतंट के अथर्श मे रस शब्द प्रयुक हुआ है। 'वैशेिषक दशर्शन' मे चौकबीस गुणो मे एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, ितक और कषाय। स्वाद, रूिच और इन्द्रच्छा के अथर्श मे भी कािलदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रेम की अनुभूतित के िलए 'कुमारसम्भव' मे रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'रघुवंश', आनन्द और प्रसनता के अथर्श मे रस शब्द काम मे लेता है। 'कावशास' मे िकसी किवता की भावभूतिम को रस कहते हैं। रसपूतणर्श वाक्य को काव कहते हैं। भतृर्शहिर सार, तत्व और सवोतम भाग के अथर्श मे रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुवेद' मे शरीर के संघटक तत्वो के िलए रस शब्द प्रयुक हुआ है। सपधातुओ को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमिण को रसरत कहते हैं। मान्यता है िक पारसमिण के स्पशर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उतररामचिरत' मे इन्द्रसके िलए रसज्ञ शब्द प्रयुक हुआ है। भतृर्शहिर कावममर्शज्ञ को रसिसद कहते हैं। 'सािहत्यदपर्शण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण िववेचन के अथर्श मे रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अथर्श मे रसप्रबन्ध शब्द प्रयुक हुआ है। रस के प्रकार रस 9 प्रकार के होते हैं - क्रमांक रस का प्रकार स्थायी भाव 1. शृंगार रस रित 2. हास्य रस हास
  • 4. 3. करुण रस शोक 4. रौकद्रि रस क्रोध 5. वीर रस उत्साह 6. भयानक रस भय 7. वीभत्स रस घृणा, जुगुप्सा 8. अदभुत रस आश्चर्यर्श 9. शांत रस िनवेद वात्सल्य रस को दसवाँ एवम् भिक को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। वत्सल तथा भिक इन्द्रनके स्थायी भाव हैं। पािरभािषक शब्दावली नाटशास मे भरत मुिन ने रस की वाख्या करते हुये कहा है - िवभावानुभावविभचािरसंयोगाद्रिरस िनष्पित: अथार्शत िवभाव, अनुभाव, विभचारी भाव के संयोग से रस की िनष्पित होती है। सुप्रिसद सािहत्य दपर्शण मे कहा गया है हृदय का स्थायी भाव, जब िवभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग प्राप कर लेता है तो रस रूप मे िनष्पन हो जाता है। रीितकाल के प्रमुख किव देव ने रस की पिरभाषा इन्द्रन शब्दो मे की है : जो िवभाव अनुभाव अरू, िवभचािरणु किर होई। िथित की पूतरन वासना, सुकिव कहत रस होई॥
  • 5. इस प्रकार रस के चार अंग है स्थायी भाव, िवभाव, अनुभाव और संचारी भाव। स्थायी भाव सहृदय के अंत:करण मे जो मनोिवकार वासना या संस्कार रूप मे सदा िवद्यमान रहते है तथा िजन्हे कोई भी िवरोधी या अिवरोधी दबा नही सकता, उन्हे स्थायी भाव कहते है। ये मानव मन मे बीज रूप मे, िचरकाल तक अचंचल होकर िनवास करते है। ये संस्कार या भावना के द्योतक है। ये सभी मनुष्यो मे उसी प्रकार िछिपे रहते है जैसे िमट्टी मे गंध अिविच्छिन रूप मे समाई रहती है। ये इतने समथर होते है िक अन्य भावो को अपने मे िवलीन कर लेते है। इनकी संख्या 11 है - रित, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, िवस्मय, िनवेद, वात्सल्य और ईश्वर िवषयक प्रेम। िवभाव िवभाव का अथर है कारण। ये स्थायी भावो का िवभावन करते है, उन्हे आस्वाद योग्य बनाते है। ये रस की उत्पित मे आधारभूत माने जाते है। िवभाव के दो भेद है: आलंबन िवभाव भावो का उद्गम िजस मुख्य भाव या वस्तु के कारण हो वह काव का आलंबन कहा जाता है।
  • 6. आलंबन के अंतगरत आते है िवषय और आश्रय । िवषय िजस पात के प्रित िकसी पात के भाव जागृत होते है वह िवषय है। सािहत्य शास मे इस िवषय को आलंबन िवभाव अथवा 'आलंबन' कहते है। आश्रय िजस पात मे भाव जागृत होते है वह आश्रय कहलाता है। उद्दीपन िवभाव स्थायी भाव को जाग्रत रखने मे सहायक कारण उद्दीपन िवभाव कहलाते है। उदाहरण स्वरूप (१) वीर रस के स्थायी भाव उत्साह के िलए सामने खड़ा हुआ शतु आलंबन िवभाव है। शतु के साथ सेना, युद के बाजे और शतु की दपोक्तिक्तियां, गजरना-तजरना, शस संचालन आिद उद्दीपन िवभाव है। उद्दीपन िवभाव के दो प्रकार माने गये है: आलंबन-गत (िवषयगत ) अथारत् आलंबन की उिक्तियां और चेष्ठाएं बाह (बिहगत) अथारत् वातावरण से संबंिधत वस्तुएं। प्राकृितक दृश्यो की गणना भी इन्ही के अंतरगत होती है।
  • 7. अनुभाव रित, हास, शोक आिद स्थायी भावो को प्रकािशत या वक्ति करने वाली आश्रय की चेष्टाएं अनुभाव कहलाती है। ये चेष्टाएं भाव-जागृित के उपरांत आश्रय मे उत्पन होती है इसिलए इन्हे अनुभाव कहते है, अथारत जो भावो का अनुगमन करे वह अनुभाव कहलाता है। अनुभाव के दो भेद है - इिच्छित और अिनिच्छित। आलंबन एवं उद्दीपन के माध्यम से अपने-अपने कारणो द्वारा उत्पन, भावो को बाहर प्रकािशत करने वाली सामान्य लोक मे जो कायर चेष्टाएं होती है, वे ही काव नाटक आिद मे िनबद अनुभाव कहलाती है। उदाहरण स्वरूप िवरह-वाकुल नायक द्वारा िससिकयां भरना, िमलन के भावो मे अश्रु, स्वेद, रोमांच, अनुराग सिहत देखना, क्रोध जागृत होने पर शस संचालन, कठोर वाणी, आंखो का लाल हो जाना आिद अनुभाव कहे जाएंगे। साधारण अनुभाव : अथारत(इिच्छित अिभनय)के चार भेद है। 1.आंिगक 2.वािचक 3. आहायर 4. साित्वक। आश्रय की शरीर संबंधी चेष्टाएं आंिगक या काियक अनुभाव है। रित भाव के जाग्रत होने पर भू-िवक्षेप, कटाक्ष आिद प्रयत पूवरक िकये गये वाग्वापार वािचक अनुभाव है। आरोिपत या कृितम वेष-रचना आहायर अनुभाव है। परंतु, स्थायी भाव के जाग्रत होने पर स्वाभािवक, अकृितम, अयतज, अंगिवकार को साित्वक अनुभाव कहते है। इसके िलए आश्रय को कोई बाह चेष्टा नही करनी पड़ती। इसिलए ये अयतज कहे जाते है। ये स्वत: प्रादुभूरत होते है और इन्हे रोका नही जा सकता। साित्वक अनुभाव : अथारत (अिनिच्छित)आठ भेद है - स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु (कम्प), वैवण्यर, अश्रु और प्रलय। संचारी या विभचारी भाव
  • 8. जो भाव केवल थोड़ी देर के िलए स्थायी भाव को पुष्ट करने के िनिमत सहायक रूप मे आते है और तुरंत लुप हो जाते है, वे संचारी भाव है। संचारी शब्द का अथर है, साथ-साथ चलना अथारत संचरणशील होना, संचारी भाव स्थायी भाव के साथ संचिरत होते है, इनमे इतना सामरथ्य होता है िक ये प्रत्येक स्थायी भाव के साथ उसके अनुकूल बनकर चल सकते है। इसिलए इन्हे विभचारी भाव भी कहा जाता है। संचारी या विभचारी भावो की संख्या ३३ मानी गयी है - िनवेद, ग्लािन, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, िचता, मोह, स्मृित, धृित, व्रीड़ा, चापल्य, हषर, आवेग, जड़ता, गवर, िवषाद, औत्सुक्य, िनद्रा, अपस्मार (िमगी), स्वप, प्रबोध, अमषर (असहनशीलता), अविहत्था (भाव का िछिपाना), उग्रता, मित, वािध, उन्माद, मरण, तास और िवतकर। पिरचय भरतमुिन (2-3 शती ई.) ने काव के आवश्यक तत्व के रूप मे रस की प्रितष्ठा करते हुए शृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीर, अदभुत, बीभत्स तथा भयानक नाम से उसके आठ भेदो का स्पष्ट उल्लेख िकया है तथा कितपय पंिक्तियो के आधार पर िवद्वानो की कल्पना है िक उन्होने शांत नामक नवे रस को भी स्वीकृित दी है। इन्ही नौ रसो की संज्ञा है नवरस। िवभावानुभाव-संचारीभाव के संयोग से इन रसो की िनष्पित होती है। प्रत्येक रस का स्थायीभाव अलग-अलग िनिश्चित है। उसी की िवभावािद संयोग से पिरपूणर होनेवाली िनिवघ-प्रतीित-ग्राह अवस्था रस कहलाती है। शृंगार का स्थायी रित, हास्य का हास, रौद्र का क्रोध, करुण का शोक, वीर का उत्साह, अदभुत का िवस्मय, बीभत्स का जुगुप्सा, भयानक का भय तथा शांत का स्थायी शम या िनवेद कहलाता है। भरत ने आठ रसो के देवता क्रमश: िवष्णु, प्रमथ, रुद्र, यमराज, इंद्र, ब्रह्मा, महाकाल तथा कालदेव को माना है। शांत रस के देवता नारायण, और उसका वणर कुंदेटु बताया जाता है। प्रथम आठ रसो के क्रमश: श्याम, िसत, रक्ति, कपोत, गौर, पीत, नील तथा कृष्ण वणर माने गए है। रस की उत्पित भरत ने प्रथम आठ रसो मे शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स को प्रधान मानकर क्रमश: हास्य, करुण, अदभुत तथा भयानक रस की उत्पित मानी है। शृंगार की अनुकृित से हास्य, रौद्र तथा वीर कमर के पिरणामस्वरूप करुण तथा अदभुत एवं वीभत्स दशरन से
  • 9. भयानक उत्पन होता है। अनुकृतित का अथ,र, अिभनवगुप (11 वी शती) के शब्दो मे आभास है, अत: िकसी भी रस का आभास हास्य का उत्पादक हो सकता है। िवकृतत वेशालंकारािद भी हास्योत्पादक होते हैं। रौद का कायर िवनाश होता है, अत: उससे करुण की तथ,ा वीरकमर का कतार प्राय: अशक्य कायो को भी करते देखा जाता है, अत: उससे अदभुत की उत्पित स्वाभािवक लगती है। इसी प्रकार बीभत्सदशरन से भयानक की उत्पित भी संभव है। अकेले स्मशानािद का दशरन भयोत्पादक होता है। तथ,ािप यह उत्पित िसद्धांत आत्यंितक नही कहा जा सकता, क्योिक परपक का रौद या वीर रस स्वपक के िलए भयानक की सृतिष भी कर सकता है और बीभत्सदशरन से शांत की उत्पित भी संभव है। रौद से भयानक, शृतंगार से अदभुत और वीर तथ,ा भयानक से करुण की उत्पित भी संभव है। वस्तुत: भरत का अिभमत स्पष नही है। उनके पश्चात् धनंजय (10 वी शती) ने िचित की िवकास, िवस्तार, िवकोभ तथ,ा िवकेप नामक चिार अवस्थ,ाएँ मानकर शृतंगार तथ,ा हास्य को िवकास, वीर तथ,ा अदभुत को िवस्तार, बीभत्स तथ,ा भयानक को िवकोभ और रौद तथ,ा करुण को िवकेपावस्थ,ा से संबंिधत माना है। िकतु जो िवद्वान् केवल दुित, िवस्तार तथ,ा िवकास नामक तीन ही अवस्थ,ाएँ मानते हैं उनका इस वगीकरण से समाधान न होगा। इसी प्रकार यिद शृतंगार मे िचित की दिवत िस्थ,ित, हास्य तथ,ा अदभुत मे उसका िवस्तार, वीर तथ,ा रौद मे उसकी दीिप तथ,ा बीभत्स और भयानक मे उसका संकोचि मान ले तो भी भरत का क्रम ठीक नही बैठता। एक िस्थ,ित के साथ, दूसरी िस्थ,ित की उपिस्थ,ित भी असंभव नही है। अदभुत और वीर मे िवस्तार के साथ, दीिप तथ,ा करुण मे दुित और संकोचि दोनो हैं। िफिर भी भरतकृतत संबंध स्थ,ापन से इतना संकेत अवश्य िमलता है िक किथ,त रसो मे परस्पर उपकारकतार िवद्यमान है और वे एक दूसरे के िमत तथ,ा सहचिारी हैं। रसो का परस्पर िवरोध िमतता के समान ही इन रसो की प्रयोगिस्थ,ित के अनुसार इनके िवरोध की कल्पना भी की गई है। िकस रसिवशेष के साथ, िकन अन्य रसो का तुरंत वणरन आस्वाद मे बाधक होगा, यह िवरोधभावना इसी िवचिार पर आधािरत है। करुण, बीभत्स, रौद, वीर और भयानक से शृतंगार का; भयानक और करुण से हास्य का; हास्य और शृतंगार से करुण का; हास्य, शृतंगार और भयानक से रौद का; शृतंगार, वीर, रौद, हास्य और शात से भयानक का; भयानक और शांत से वीर का; वीर, शृतंगार, रौद, हास्य और भयानक से शांत का िवरोध माना जाता है। यह िवरोध आश्रय ऐक्य, आलंबन ऐक्य अथ,वा नैरंतयर के कारण उपिस्थ,त होता है। प्रबंध काव मे ही इस िवरोध की संभावना रहती है। मुक्तक मे प्रसंग की छंद के साथ, ही समािप हो जाने से इसका भय नही रहता है। लेखक को िवरोधी रसो का आश्रय तथ,ा आलंबनो को पृतथ,क-पृतथ,क रखकर अथ,वा दो िवरोधी रसो के बीचि दोनो के िमत रस को उपिस्थ,त करके या प्रधान रस की अपेका अंगरस का संचिारीवत् उपिस्थ,त करके इस िवरोध से उत्पन आस्वाद-वाघात को उपिस्थ,त होने से बचिा लेना चिािहए। रस की आस्वादनीयता
  • 10. रस की आस्वादनीयता का िवचिार करते हुए उसे ब्रह्मानंद सहोदर, स्वप्रकाशानंद, िवलकण आिद बताया जाता है और इस आधार पर सभी रसो को आनंदात्मक माना गया है। भट्टनायक (10 वी शती ई.) ने सत्वोदैक के कारण ममत्व-परत्व-हीन दशा, अिभनवगुप (11 वी शती ई.) ने िनिवघ प्रतीित तथ,ा आनंदवधरन (9 श. उतर) ने करुण मे माधुयर तथ,ा आदरता की अविस्थ,त बताते हुए शृतंगार, िवप्रलंभ तथ,ा करुण को उतरोतर प्रकषरमय बताकर सभी रसो की आनंदस्वरूपता की ओर ही संकेत िकया है। िकतु अनुकूलवेदनीयता तथ,ा प्रितकूलवेदनीयता के आधार पर भावो का िववेचिन करके रुदभट्ट (9 से 11 वी शती ई. बीचि) रामचिंद गुणचिंद (12 वी श.ई.), हिरपाल, तथ,ा धनंजय ने और िहदी मे आचिायर रामचिंद शुक्ल ने रसो का सुखात्मक तथ,ा दु:खात्मक अनुभूितवाला माना है। अिभनवगुप ने इन सबसे पहले ही "अिभनवभारती" मे "सुखदु:खस्वभावो रस:" िसद्धात को प्रस्तुत कर िदया थ,ा। सुखात्मक रसो मे शृतंगार, वीर, हास्य, अदभुत तथ,ा शांत की और दु:खात्मक मे करुण, रौद, बीभत्स तथ,ा भयानक की गणना की गई। "पानकरस" का उदाहरण देकर जैसे यह िसद्ध िकया गया िक गुड िमिरचि आिद को िमिश्रत करके बनाए जानेवाले पानक रस मे अलग-अलग वस्तुओ का खट्टा मीठापन न मालूम होकर एक िविचित प्रकार का आस्वाद िमलता है, उसी प्रकार यह भी कहा गया िक उस वैिचित्र्य मे भी आनुपाितक ढंग से कभी खट्टा, कभी ितक्त और इसी प्रकार अन्य प्रकार का स्वाद आ ही जाता है। मधुसूदन सरस्वती का कथ,न है िक रज अथ,वा तम की अपेका सत्व को प्रधान मान लेने पर भी यह तो मानना ही चिािहए िक अंशत: उनका भी आस्वाद बना रहता है। आचिायर शुक्ल का मत है िक हमे अनुभूित तो विणत भाव की ही होती है और भाव सुखात्मक दु:खात्मक आिद प्रकार के हैं, अतएव रस भी दोनो प्रकार का होगा। दूसरी ओर रसो को आनंदात्मक मानने के पकपाती सहृदयो को ही इसका प्रमण मानते हैं और तकर का सहारा लेते हैं िक दु:खदायी वस्तु भी यिद अपनी िप्रय है तो सुखदायी ही प्रतीत होती है। जैसे, रितकेिल के समय स्त्री का नखकतािद से यो तो शरीर पीडा ही अनुभव होती है, िकतु उस समय वह उसे सुख ही मानती है। भोज (11 वी शती ई.) तथ,ा िवश्वनाथ, (14 वी शती ई.) की इस धारणा के अितिरक्त स्वयं मधुसूदन सरस्वती रसो को लौिकक भावो की अनुभूित से िभन और िवलकण मानकर इनकी आनंदात्मकता का समथ,रन करते है और अिभनवगुप वीतिवघप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष करते हैं िक उसी भाव का अनुभव भी यिद िबना िवचििलत हुए और िकसी बाहरी अथ,वा अंतरोदभूत अंतराय के िबना िकया जाता है तो वह सह होने के कारण आनंदात्मक ही कहलाता है। यिद दु:खात्मक ही माने तो िफिर शृतंगार के िवप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही माने तो िफिर शृतंगार के िवप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही क्यो न माना जाए? इस प्रकार के अनेक तकर देकर रसो की आनंदरूपता िसद्ध की जाती है। अंग्रेजी मे ट्रैजेडी से िमलनेवाले आनंद का भी अनेक प्रकार से समाधान िकया गया है और मराठी लेखको ने भी रसो की आनंदरूपता के संबंध मे पयारप िभन धारणाएँ प्रस्तुत की हैं। रसो का राजा कौन है?
  • 11. प्राय: रसो के िविभन नामो की औपािधक या औपचिािरक सता मानकर पारमािथ,क रूप मे रस को एक ही मानने की धारणा प्रचििलत रही है। भारत ने "न िह रसादृतते किश्चदप्यथ,र : प्रवतरत" पंिक्त मे "रस" शब्द का एक वचिन मे प्रयोग िकया है और अिभनवगुप ने उपिरिलिखत धारणा वक्त की है। भोज ने शृतंगार को ही एकमात रस मानकर उसकी सवरथ,ैव िभन वाख्या की है, िवश्वनाथ, की अनुसार नारायण पंिडत चिमत्कारकारी अदभुत को ही एकमात रस मानते हैं, क्योिक चिमत्कार ही रसरूप होता है। भवभूित (8 वी शती ई.) ने करुण को ही एकमात रस मानकर उसी से सबकी उत्पित बताई है और भरत के "स्वं स्वं िनिमतमासाद्य शांताद्भाव: प्रवतरते, पुनिनिमतापाये चि शांत एवोपलीयते" - (नाट्यशास्त्र 6/108) वक्तव के आधार पर शांत को ही एकमात रस माना जा सकता है। इसी प्रकार उत्साह तथ,ा िवस्मय की सवररससंचिारी िस्थ,ित के आधार पर उन्हे भी अन्य सब रसो के मूल मे माना जा सकता है। रस आस्वाद और आनंद के रूप मे एक अखंड अनुभूित मात हैं, यह एक पक है और एक ही रस से अन्य रसो का उद्भव हुआ है यह दूसरा पक है। रसाप्राधान्य के िवचिार मे रसराजता की समस्या उत्पन की है। भरत समस्त शुिचि, उज्वल, मेध्य और दलनीय को शृतंगार मानते हैं, "अिग्निपुराण" (11 वी शती) शृतंगार को ही एकमात रस बताकर अन्य सबको उसी के भेद मानता है, भोज शृतंगार को ही मूल और एकमात रस मानते हैं, परंतु उपलब्ध िलिखत प्रमाण के आधार पर "रसराज" शब्द का प्रयोग "उज्ज्वलनीलमिण" मे भिक्तरस के िलए ही िदखाई देता है। िहदी मे केशवदास (16 वी शती ई.) शृतंगार को रसनायक और देव किव (18 वी शती ई.) सब रसो का मूल मानते हैं। "रसराज" संज्ञा का शृतंगार के िलए प्रयोग मितराम (18 वी शती ई.) द्वारा ही िकया गया िमलता है। दूसरी ओर बनारसीदास (17 वी शती ई.) "समयसार" नाटक मे "नवमो सांत रसिन को नायक" की घोषणा करते हैं। रसराजता की स्वीकृतित वापकता, उत्कट आस्वाद्यता, अन्य रसो को अंतभूरत करने की कमता सभी संचिािरयो तथ,ा साित्वको को अंत:सात् करने की शिक्त सवरप्रािणसुलभत्व तथ,ा शीघ्रग्राहता आिद पर िनभरर है। ये सभी बाते िजतनी अिधक और प्रबल शृतंगार मे पाई जाती हैं, उतनी अन्य रसो मे नही। अत: रसराज वही कहलाता है। शृतंगार रस िवचिारको ने रौद तथ,ा करुण को छोडकर शेष रसो का भी वणरन िकया है। इनमे सबसे िवस्तृतत वणरन शृतंगार का ही ठहरता है। शृतंगार मुख्यत: संयोग तथ,ा िवप्रलंभ या िवयोग के नाम से दो भागो मे िवभािजत िकया जाता है, िकतु धनंजय आिद कुछ िवद्वान् िवप्रलंभ के पूवारनुराग भेद को संयोग-िवप्रलंभ-िवरिहत पूवारवस्थ,ा मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथ,ा शेष िवप्रयोग तथ,ा संभोग नाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अनेक पिरिस्थ,ितयो के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल आश्रय भेद से नायकारब्ध, नाियकारब्ध अथ,वा उभयारब्ध, प्रकाशन के िवचिार से प्रच्छन तथ,ा प्रकाश या स्पष और गुप तथ,ा प्रकाशनप्रकार के
  • 12. िवचिार से संिकप, संकीणर, संपनतर तथ,ा समृतिद्धमान नामक भेद िकए जाते हैं तथ,ा िवप्रलंभ के पूवारनुराग या अिभलाषहेतुक, मान या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, िवरह तथ,ा करुण िप्रलंभ नामक भेद िकए गए हैं। "कावप्रकाश" का िवरहहेतुक नया है और शापहेतुक भेद प्रवास के ही अंतगरत गृतहीत हो सकता है, "सािहत्यदपरण" मे करुण िवप्रलंभ की कल्पना की गई है। पूवारनुराग कारण की दृतिष से गुणश्रवण, प्रत्यकदशरन, िचितदशरन, स्वप तथ,ा इंदजाल-दशरन-जन्य एवं राग िस्थ,रता और चिमक के आधार पर नीली, कुसुंभ तथ,ा मंिजष्ठा नामक भेदो मे बाँटा जाता है। "अलंकारकौस्तुभ" मे शीघ्र नष होनेवाले तथ,ा शोिभत न होनेवाले राग को "हािरद" नाम से चिौथ,ा बताया है, िजसे उनका टीकाकार "श्यामाराग" भी कहता है। पूवारनुराग का दश कामदशाएँ - अिभलाष, िचिता, अनुस्मृतित, गुणकीतरन, उद्वेग, िवलाप, वािध, जडता तथ,ा मरण (या अप्रदश्र्य होने के कारण उसके स्थ,ान पर मूच्र्छा) - मानी गई हैं, िजनके स्थ,ान पर कही अपने तथ,ा कही दूसरे के मत के रूप मे िवष्णुधमोतरपुराण, दशरूपक की अवलोक टीका, सािहत्यदपरण, प्रतापरुदीय तथ,ा सरस्वतीकंठाभरण तथ,ा कावदपरण मे िकिचित् पिरवतरन के साथ, चिकुप्रीित, मन:संग, स्मरण, िनदाभंग, तनुता, वावृतित, लज्जानाश, उन्माद, मूच्र्छा तथ,ा मरण का उल्लेख िकया गया है। शारदातनय (13 वी शती) ने इच्छा तथ,ा उत्कंठा को जोडकर तथ,ा िवद्यानाथ, (14 वी शती पूवारधर) ने स्मरण के स्थ,ान पर संकल्प लाकर और प्रलाप तथ,ा संज्वर को बढ़ाकर इनकी संख्या 12 मानी है। यह युिक्तयुक्त नही है और इनका अंतभारव हो सकता है। मान-िवप्रलंभ प्रणय तथ,ा ईष्र्या के िवचिार से दो प्रकार का तथ,ा मान की िस्थ,रता तथ,ा अपराध की गंभीरता के िवचिार से लघु, मध्यम तथ,ा गुरु नाम से तीन प्रकार का, प्रवासिवप्रलंभ कायरज, शापज, सँभ्रमज नाम से तीन प्रकार का और कायरज के यस्यत्प्रवास या भिवष्यत् गच्छत्प्रवास या वतरमान तथ,ा गतप्रवास या भिवष्यत् गच्छत्प्रवास या वतरमान तथ,ा गतप्रवास या भूतप्रवास, शापज के तादूप्य तथ,ा वैरूप्य, तथ,ा संभ्रमज के उत्पात, वात, िदव, मानुष तथ,ा परचिक्रािद भेद के कारण कई प्रकार का होता है। िवरह गुरुजनािद की समीपता के कारण पास रहकर भी नाियका तथ,ा नायक के संयोग के होने का तथ,ा करुण िवप्रलंभ मृतत्यु के अनंतर भी पुनजीवन द्वारा िमलन की आशा बनी रहनेवाले िवयोग को कहते हैं। शृतंगार रस के अंतगरत नाियकालंकार, ऋतु तथ,ा प्रकृतित का भी वणरन िकया जाता है। एक उदाहरण है- राम को रूप िनहारित जानकी कंगन के नग की परछाही । याते सबे सुख भूिल गइ कर तेिक रही पल तारित नाही ।। हास्य रस हास्यरस के िवभावभेद से आत्मस्थ, तथ,ा परस्थ, एवं हास्य के िवकासिवचिार से िस्मत, हिसत, िवहिसत, उपहिसत, अपहिसत तथ,ा
  • 13. अतितिहसिसिति भेद करके उनके भी उत्तम, मध्यम तिथा अतधम प्रकृतिति भेद सिे तिीन भेद करतिे हुए उनके अतंतिगतर्गति पूर्वोक क्रमश: दो-दो भेदो को रखा गतया हसै। िहसदी मे केशवदासि तिथा एकाध अतन्य लेखक ने केवल मंदहसासि, कलहसासि, अतितिहसासि तिथा पिरहसासि नामक चार हसी भेद िकए हसैं। अतंग्रेजी के आधार पर हसास्य के अतन्य अतनेक नाम भी प्रचिलति हसो गतए हसैं। वीर रसि के केवल युद्धवीर, धमर्गवीर, दयावीर तिथा दानवीर भेद स्वीकार िकए जातिे हसैं। उत्सिाहस को आधार मानकर पंिडितिराज (17 वी शतिी मध्य) आिद ने अतन्य अतनेक भेद भी िकए हसैं। अतदभुति रसि के भरति िदव तिथा आनंदज और वैष्णव आचायर्ग दृतष, श्रुति, सिंकीर्तितिति तिथा अतनुिमति नामक भेद करतिे हसैं। बीभत्सि भरति तिथा धनंजय के अतनुसिार शुद्ध, क्षोभन तिथा उद्वेगती नाम सिे तिीन प्रकार का हसोतिा हसै और भयानक कारणभेद सिे वाजजन्य या भ्रमजिनति, अतपराधजन्य या काल्पिनक तिथा िवत्रािसितिक या वास्तििवक नाम सिे तिीन प्रकार का और स्विनष परिनष भेद सिे दो प्रकार का माना जातिा हसै। शांति का कोई भेद नहसी हसै। केवल रुद्रभट ने अतवश्य वैराग्य, दोषनिनग्रहस, सिंतिोषन तिथा तित्वसिाक्षात्कार नाम सिे इसिके चार भेद िदए हसैं जो सिाधन मात्र के नाम हसै और इनकीर्त सिंख्या बढ़ाई भी जा सिकतिी हसै। शान्ति रसि शांति रसि का उल्लेख यहसाँ कुछ दृतिषयो सिे और आवश्यक हसै। इसिके स्थायीभाव के सिंबंध मे ऐकमत्य नहसी हसै। कोई शम को और कोई िनवेद को स्थायी मानतिा हसै। रुद्रट (9 ई.) ने "सिम्यक् ज्ञान" को, आनंदवधर्गन ने "तिृतष्णाक्षयसिुख" को, तिथा अतन्यो ने "सिवर्गिचत्तवृतित्तप्रशम", िनिवशेषनिचत्तवृतित्त, "घृतिति" या "उत्सिाहस" को स्थायीभाव माना। अतिभनवगतुप ने "तित्वज्ञान" को स्थायी माना हसै। शांति रसि का नाट मे प्रयोगत करने के सिंबंध मे भी वैमत्य हसै। िवरोधी पक्ष इसिे िविक्रयाहसीन तिथा प्रदशर्गन मे किठिन मानकर िवरोध करतिा हसै तिो सिमथर्गक दल का कथन हसै िक चेषाओ का उपराम प्रदिशति करना शांति रसि का उद्देश्य नहसी हसै, वहस तिो पयर्यंतिभूर्िम हसै। अततिएव पात्र कीर्त स्वभावगतति शांिति एवं लौकिकक दु:ख सिुख के प्रिति िवरागत के प्रदशर्गन सिे हसी काम चल सिकतिा हसै। नट भी इन बातिो को और इनकीर्त प्रािप के िलए िकए गतए प्रयत्नो को िदखा सिकतिा हसै और इसि दशा मे सिंचािरयो के ग्रहसण करने मे भी बाधा नहसी हसोगती। सिवेंद्रिद्रय उपराम न हसोने पर सिंचारी आिद हसो हसी सिकतिे हसैं। इसिी प्रकार यिद शांति शम अतवस्थावाला हसै तिो रौकद्र, भयानक तिथा वीभत्सि आिद कुछ रसि भी ऐसिे हसैं िजनके स्थायीभाव प्रबुद्ध अतवस्था मे प्रबलतिा िदखाकर शीघ हसी शांति हसोने लगततिे हसैं। अततिएव जैसिे उनका प्रदशर्गन प्रभावपूर्णर्ग रूप मे िकया जातिा हसै, वैसिे हसी इसिका भी हसो सिकतिा हसै। जैसिे मरण जैसिी दशाओ का प्रदशर्गन अतन्य स्थानो पर िनिषनद्ध हसै वैसिे हसी उपराम कीर्त पराकाषा के प्रदशर्गन सिे यहसाँ भी बचा जा सिकतिा हसै। रसिो का अतन्तिभार्गव आिद स्थायीभावो के िकसिी िवशेषन लक्षण अतथवा रसिो के िकसिी भाव कीर्त सिमानतिा के आधार पर प्राय: रसिो का एक दूर्सिरे मे अतंतिभार्गव करने, िकसिी स्थायीभाव का ितिरस्कार करके नवीन स्थायी मानने कीर्त प्रवृतित्त भी यदा-कदा िदखाई पड़ी हसै। यथा, शांति रसि और
  • 14. दयावीर तिथा वीभत्सि मे सिे दयावीर का शांति मे अतंतिभार्गव तिथा बीभत्सि स्थायी जुगतुप्सिा को शांति का स्थायी माना गतया हसै। "नागतानंद" नाटक को कोई शांति का और कोई दयावीर रसि का नाटक मानतिा हसै। िकतिु यिद शांति के तित्वज्ञानमूर्लक िवराम और दयावीर के करुणाजिनति उत्सिाहस पर ध्यान िदया जाए तिो दोनो मे िभन्नतिा िदखाई देगती। इसिी प्रकार जुगतुप्सिा मे जो िवकषनर्गण हसै वहस शांति मे नहसी रहसतिा। शांति रागत-द्वेषन दोनो सिे परे सिमावस्था और तित्वज्ञानसिंिमिलति रसि हसै िजसिमे जुगतुप्सिा सिंचारी मात्र बन सिकतिी हसै। ठिीक ऐसिे जैसिे करुण मे भी सिहसानुभूर्िति का सिंचार रहसतिा हसै और दयावीर मे भी, िकतिु करुण मे शोक कीर्त िस्थिति हसै और दयावीर मे सिहसानुभूर्ितिप्रेिरति आत्मशिकसिंभूर्ति आनंदरूप उत्सिाहस कीर्त। अतथवा, जैसिे रौकद्र और युद्धवीर दोनो का आलंबन शत्रु हसै, अतति: दोनो मे क्रोध कीर्त मात्रा रहसतिी हसै, परंतिु रौकद्र मे रहसनेवाली प्रमोदप्रितिकूर्ल तिीक्ष्णतिा और अतिववेक और युद्धवीर मे उत्सिहस कीर्त उत्फु ल्लतिा और िववेक रहसतिा हसै। क्रोध मे शत्रुिवनाश मे प्रितिशोध कीर्त भावना रहसतिी हसै और वीर मे धैयर्ग और उदारतिा। अततिएव इनका परस्पर अतंतिभार्गव सिंभव नहसी। इसिी प्रकार "अतंमषनर्ग" को वीर का स्थायी मानना भी उिचति नहसी, क्योिक अतमषनर्ग िनदा, अतपमान या आक्षेपािद के कारण िचत्त के अतिभिनवेश या स्वािभमानावबोध के रूप मे प्रकट हसोतिा हसै, िकतिु वीररसि के दयावीर, दानवीर, तिथा धमर्गवीर नामक भेदो मे इसि प्रकार कीर्त भावना नहसी रहसतिी।