38. इसका कोई कारण न होने से इसे अलिंग या प्रधान भी कहते हैं।
39. यह अधिभूत - अचेतन , जड़ तत्त्व अमूल ( इसका कोई कारण नहीं ) है।
40. प्रकृति के विकार ( ये तीन गुण , विभिन्न अनुपातों में , परस्पर मिथिनीभूत होकर ) समस्त विश्व - रचना के उपादान कारण बनते हैं .
41. प्रकृति से बनी सृष्टि - रचना को शास्त्रों में दृश्य कहा गया है।
42. प्रकृति प्रवाह से अनादि , नित्य , किंतु परिवर्तनशील , परिणामी अर्थात् लगातार रूप बदलने वाली है।
43.
44. जैसे माता - पिता अपने संतानों पर कृपादृष्टि कर उनकी उन्नति चाहते हैं , वैसे ही परमात्मा ने सब मनुष्यों पर कृपा करके वेदों को प्रकाशित किया है ; जिससे मनुष्य अविद्यान्धकार एवं भ्रमजाल से छूटकर विद्या - विज्ञानरूप सूर्य को प्राप्तकर अत्यानन्द में रहें , और विद्या तथा सुखों की वृद्धि करते जाएँ।
45. वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है . उसमें वर्णित ज्ञान नित्य है।
52. साधारण कारण - किसी वस्तु को बनाने में लगने वाले साधन - उपकरण , यंत्र , ज्ञान , बल , दर्शन , समय , ऊर्जा आदि ।
53.
54. सृष्टि - रचना के 24 अचेतन तत्त्व 4. तामस अहंकार से उत्पन्न पाँच तन्मात्र या सूक्ष्मभूत - शब्द , स्पर्श , रूप , रस , गंध . 5. सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न पाँच ( बाह्य ) ज्ञानेन्द्रियाँ - श्रोत्र , त्वक , चक्षु , रसन , घ्राण . 6. सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न पाँच ( बाह्य ) कर्मेन्द्रियाँ - वाक् , पाणि , पाद , पायु , उपस्थ . 7. सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न एक आंतर इन्द्रिय - ' मन '. ( इन्द्रियाँ केवल विकार हैं , ये आगे किसी तत्त्वांतर को उत्पन्न नहीं करतीं ) 8. तन्मात्राओं वा सूक्ष्मभूत से उत्पन्न पाँच स्थूलभूत - आकाश , वायु , अग्नि , जल , पृथ्वी .
55.
56.
57.
58. इनमें मूल प्रकृति केवल उपादान, तथा महत् आदि तेईस पदार्थ उसके विकार हैं । ये चौबीस अचेतन जगत हैं ।
73. उत्तर मीमांसा व्यास मुनि. (वेदांत अथवा ब्रह्म सूत्र ) विवेचित विषय प्रमाण , उपपत्ति , तर्क विज्ञान भौतिक - रसायन विज्ञान मोक्ष एवं सृष्टि - रचना विज्ञान समाधि - प्राप्ति विज्ञान यज्ञ - कर्म विज्ञान ब्रह्म ( ईश्वर ) विज्ञान
74.
75. इसलिये जो परमेश्वर की स्तुति , प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है ,
76.
77. द्वेष , रूप , रस , गन्ध , स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान , अतिसूक्ष्म आत्मा के भीतर - बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ स्थित होजाना निर्गुणोपासना कहलाती है।
78. उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टांग [ यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान , समाधि ] योग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उसको सर्वव्यापी , सर्वान्तर्यामिरूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो - जो काम करना होता है , वह - वह सब करना चाहिये।
106. इससे अतिरिक्त आत्मा का बल इतना बढ़ेगा कि वह पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरावेगा और सबको सहन कर सकेगा। यह बहुत बड़ी बात है।
107. इसलिये परमेश्वर की स्तुति - प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये। जो आठ प्रहर ( चौबीस घण्टे ) में एक घड़ी ( चौबीस मिनट ) भर भी इसप्रकार ध्यान करता है वह सदा उन्नति को प्राप्त होता जाता है। *** महर्षि दयानन्द सरस्वती रचित सत्यार्थ प्रकाश से
108.
109.
110. ये प्रणालियाँ हैं - श्वसन , रक्तसंचार , भोजनपाचन , मलोत्सर्जन , जीवोत्पादन , शरीररक्षण , स्नायुतन्त्र इत्यादि।
112. शरीर की तत्कालिक स्थिति के अनुसार ये सभी प्रणालियाँ मस्तिष्क के नियंत्रण में , आपस में संचार व समन्वय रखते हुये , चौबीसों घण्टे कार्य करती रहती हैं।
113. इन सभी प्रणालियों को जो संस्थान चला रहा है वह प्राण है जो कि प्राणमय कोश मे स्थित है ; और , स्थूल शरीर के अन्नमय कोश से सूक्ष्मतर है।
175. यही जीव सबका प्रेरक , सब का धर्त्ता , साक्षी , कर्त्ता - भोक्ता कहाता है।
176.
177. उसी समय , अच्छे कर्मों में भीतर से आनन्द , उत्साह , निर्भयता ; और , बुरे कर्मों में भय , शंका , लज्जा उत्पन्न होती है। यह अंतर्यामी परमात्मा की शिक्षा है।
178. जो कोई इस शिक्षा के अनुकूल वर्तता है वही मुक्तिजन्य सुखों को प्राप्त होता है ; और , जो विपरीत वर्तता है वह बन्धजन्य दुःख भोगता है।
179.
180. पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के गुण , कर्म , स्वभाव जानकर